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Monday, 15 October 2012

जोशीले उद्गार

आ धरती थोड़ी तपे घणी , बुझाओ तीस लोय स्यु ,
बिज्ल्या अठे चमके घणी , आने सामे चिम्काओ तलवार स्यु !



राजपूतोँ की आँखे केवल मृत्यु के समय नीची होती हैँ.


छोड़ आशियाने , रणभूमि निमंत्रण देती है , 
ले सुध बुध उठ , जाग वीर धरा हाहाकार करती है ! 
मांगे न्याय भीर , उनकी दुर्दशा पुकार करती है , 
क्षत्राणी का खून तुझमे , रणभेरी यही ललकार करती है !


दुर्योधन :- “तेरी मृत्यु निश्चित है , क्योंकि तेरा बाहर जाने का द्वार बंध हो चुका है .”
अभिमन्यु :- “जो वीर होते है वो भागने के मार्ग खोलते भी नहीं ताऊश्री !”


मैं( राजपुत) शेर हूँ, शेरों की गुर्राहट नहीं जाती,
मैं लहज़ा नर्म भी कर लूँ तो झुँझलाहट नहीं जाती ।
किसी दिन बेख़याली में कहीं सच बोल बैठा था,
मैं कोशिश कर चुका हूँ मुँह की कड़वाहट नहीं जाती ।।


वो लफ्ज गिरते उनकी ललकार से ,
जंगी सवार गिरते उनकी हुंकार से !

तलवार से कड़के बीजली , 
लहू से लाल हो धरती ! 
प्रभु वर दे ऐसा मोहि , 
मिले विजय या वीरगति !

हुँ लड्यो घणो , हुँ सहयो घणो, मेवाडी मान बचावण न
हुँ पाछ नहि राखी रण म , बैरयां रो खून बहावण म


!! राजपूत : नाम ही काफी है !!
~ और क्या कहूँ तुझे सर झुका कर चलने का मन नहीं करता !
~ न देख टेढ़ी नजरों से शेर का मन शिकार करना नहीं छोड़ता !
~ इतिहास बदलने की ठानी नहीं अभी,
~ जब उठेंगे तो रक्त चरित्र लिख देंगे !








राजपूत एकता जिंदाबाद !!
जय राजपुताना ! जय भवानी !