"मैं अपनी साधना से जीवन का एक भी दिन ,शक्ति का एक भी अणु ,
द्रव्य का एक भी पैसा,और हृदय का एक भी पवित्र भाव छिपाकर नहीं
रखता ! तभी मैं बनता हूँ एक दृढ़ प्रतिज्ञ वीर व्रती और यही है मेरी
साधना के स्वरूप की चरम सीमा !"
-पु . आयुवानसिंह जी