सत्य तो हमारे जीवन में इतना ओत - प्रोत है की जीवन से उसे सर्वथा पृथक किया ही नहीं जा सकता !हमारे साधना कार्यक्रमों में ही इन सम्बन्धों में सत्य तो रहता है ,लेकिन अपने भिन्न -भिन्न स्वरूपों में !कोई भी साधक विकास की चाहे जिस अवस्था में हो ,उसके सामने भी तो सत्य तो है ,लेकिन वह उसे पहचानता नहीं !अत :वह उस अवस्था को छोड़कर अन्य किसी स्थिति की कामना करता है !साधारण कोटि के जीव अपनी निर्बलताओं को ही श्रेष्ठतायें समझकर उनसे दूर होने का यत्न ही नहीं करते !इसलिए श्रेष्ठ वस्तुओं के सामने से होकर गुजरने पर भी वे अपनी ही निर्बलताओं से चिपके रहने में अधिक सुरक्षा का अनुभव करते हैं !
पूज्य श्री तनसिंह जी
पूज्य श्री तनसिंह जी